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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=रामनरेश त्रिपाठी}}{{KKCatKavita}}<poem>बाजे अस्तोदय की वीणा-क्षण-क्षण गगनांगन गगनाँगन में रे,
हुआ प्रभात छिप गए तारे, संध्या हुई भानु भी हारे,
यह उत्थान पतन है व्यापक प्रति कण-कण में रे ।
ऐसी ही गति तेरी होगी, निश्चित है क्यों देरी होगी,
निश्चय करके फिर न ठहर तू, तन रहते प्रण पूरण कर तू,