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Kavita Kosh से
{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=नंद भारद्वाज |संग्रह=}}{{KKCatKavita}}<poemPoem>एक बरती हुई दिनचर्या अबछूट गई है आंख आँख से बाहरउतर रही है धीरे -धीरे
आसमान से गर्द
दूर तक दिखने लगा है
रेत का विस्तार
उड़ान की तैयारी से पूर्व
पंछी जैसे दरख्तों दरख़्तों की डाल पर!जानता हूंहूँ, ज्वार उतरने के साथ
यहीं किनारे पर
छूट जाएंगी कश्तियांजाएँगी कश्तियाँ
शंख-घोंघे-सीपियों के खोल
अवशेषों में अब कहां कहाँ जीवन ?जीवनदायी हवाएं हवाएँ बहती हैं
आदिम बस्तियों के बीच
उन्हीं के सहवास में रचने का
अपना सुख
निरापद हरियाली की छांव छाँव में!इससे पहले कि अंधेरा अँधेरा आकरढंक ढँक ले फलक तक फैले
दीठ का विस्तार,
मुझे पानी और मिट्टी के बीच
एक बीज की तरह
बने रहना है पृथ्वी की कोख में!</poem >