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इन ढालों के दुर्गम पथ पर देखे रोज़ फिसलते लोग ।
 
फिर कैसे शिखरों पर पहुंचे बैसाखी पर चलते लोग !
 
प्यारी नदियों की आहों पर ह्रदय तुम्हारा पिघल गया
 
सच कहता हूँ मित्र हिमालय, जग में नहीं पिघलते लोग ।
 
आलीशान इबदातखाने लेकिन इनमें आए कौन
 
दहशत के मौसम में अपने घर से नहीं निकलते लोग ।
 
हम क्या जानें धर्म की बातें जाकर उनसे पूछ न लो
 
हर मौसम में पोशाकों-सा जो ईमान बदलते लोग ।
 
हम हैं राही प्रेम-डगर के बाज़ न आए मर कर भी
 
दुनिया वाले कहते ठोकर खाकर यहाँ संभलते लोग ।
 
औरों की पीड़ा से गौतम हरगिज़ बुद्ध नहीं होते
 
यदि वैभव की चकाचौंध के मारे नहीं बदलते लोग ।
 
कर्म बड़ा तो जाति बड़ी है मानो ‘उदय’ हमारी बात
 
वरना तुम जैसे सडकों पर मिलते बहुत टहलते लोग ।
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