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कांटे {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=उदयप्रताप सिंह}}{{KKCatKavita}}<poem>काँटे तो कांटे काँटे होते हैं उनके चुभने का क्या रोना । 
मुझको तो अखरा करता है फूलों का काँटों-सा होना ।
 युग-युग तक उनकी मिट्टी से फूलों की खुशबू ख़ुशबू आती है 
जिनका जीवन ध्येय रहा है कांटे चुनना कलियाँ बोना ।
 
बदनामी के पर होते हैं अपने आप उड़ा करती है
 
मेरे अश्रु बहें बह जाएँ तुम अपना दामन न भिगोना ।
 
दुनिया वालों की महफ़िल में पहली पंक्ति उन्हें मिलती है
 
जिनको आता है अवसर पर छुपकर हँसना बन कर रोना ।
 
वाणी के नभ में दिनकर-सा ‘उदय’ नहीं तू हो सकता है
 अगर नहीं तूने सीखा है नये घावों में कलम क़लम डुबोना ।</poem>
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