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मिनौती / अपर्णा भटनागर

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मेरे बांस बाँस पहचानते हो मिनौती( <ref>एक बाला का नाम ) </ref> को
तुम्हारी और मेरी आत्मा एक सरीखी है-
इस खोखल से
सर्रसर्र सर्र-सर्र करती हवाओं ने बजना सीखा है  छिल-छिल कर सरकंडों में गुंथी गुँथी
जीवन की टोकरियाँ
जिनमें वे भर सके
आराम .. आज भी तुम्हारी बांसुरी बाँसुरी से
गुज़र जाते हैं
बरई, न्यिओगा(<ref>अरुणाचल के लोकगीत )</ref>
मेरी सलवटों में उलझे
कितनी तहों के भीतर
छलकते आंसुओं आँसुओं की तलौंछ के नीचे
दबे-दबे से स्वर
मेरे सीतापुष्प (<ref>ऑर्किड )</ref>
तुम्हे याद होगा मेरा स्पर्श-
अपने कौमार्य को
सुबनसिरी (<ref>अरुणाचल की नदी ) </ref> में धोकर मलमल किया था
और घने बालों में तुम
टंक टँक गए थे
तब मेरी आत्मा का प्रसार उस सुरभि के साथ
बह चला था
मिट्टी तुम क्यों घूर रही हो -
इन झुर्रियों के नीचे
अभी भी सूरज जलता है (<ref>अरुणाचल में सूरज स्त्री रूप है और चाँद पुरुष )</ref>
जिसके दाह से
तुम प्रसव करती रही हो
धैर्य पाया था सृजन का
चीड़-चीनार चिनार में खोये खोए पहाड़
तुम्हारी हरी पटरियों पर
मेरे चुप पैर आहट देते रहे हैं
अकेला न रह जाए
इस विशाल समृद्धि में
तुम्हारा विस्तार मेरी सीमाओं में बंधता बँधता रहा है
अपने होने की मीमांसा करोगे ?
मेरा चुप रहना ही ठीक .
</poem>
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