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Kavita Kosh से
मेरे बांस बाँस पहचानते हो मिनौती( <ref>एक बाला का नाम ) </ref> को
तुम्हारी और मेरी आत्मा एक सरीखी है-
इस खोखल से
जीवन की टोकरियाँ
जिनमें वे भर सके
गुज़र जाते हैं
बरई, न्यिओगा(<ref>अरुणाचल के लोकगीत )</ref>
मेरी सलवटों में उलझे
कितनी तहों के भीतर
छलकते आंसुओं आँसुओं की तलौंछ के नीचे
दबे-दबे से स्वर
मेरे सीतापुष्प (<ref>ऑर्किड )</ref>
तुम्हे याद होगा मेरा स्पर्श-
अपने कौमार्य को
सुबनसिरी (<ref>अरुणाचल की नदी ) </ref> में धोकर मलमल किया था
और घने बालों में तुम
तब मेरी आत्मा का प्रसार उस सुरभि के साथ
बह चला था
मिट्टी तुम क्यों घूर रही हो -
इन झुर्रियों के नीचे
अभी भी सूरज जलता है (<ref>अरुणाचल में सूरज स्त्री रूप है और चाँद पुरुष )</ref>
जिसके दाह से
तुम प्रसव करती रही हो
धैर्य पाया था सृजन का
चीड़-चीनार चिनार में खोये खोए पहाड़
तुम्हारी हरी पटरियों पर
मेरे चुप पैर आहट देते रहे हैं
अकेला न रह जाए
इस विशाल समृद्धि में
तुम्हारा विस्तार मेरी सीमाओं में बंधता बँधता रहा है
अपने होने की मीमांसा करोगे ?
मेरा चुप रहना ही ठीक . ।
</poem>
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