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{{KKRachna
|रचनाकार= जावेद अख़्तर
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
मै पा सका न कभी इस खलीस से छुटकारा
वो मुझसे जीत भी सकता था जाने क्यों हारा

बरस के खुल गए आंसूं निथर गई है फिजां
चमक रहा है सरे-शाम दर्द का तारा

किसी की आँख से टपका था इक अमानत है
मेरी हथेली पे रखा हुआ ये अंगारा

जो पर समेटे तो इक शाख भी नहीं पाई
खुले थे पर तो मेरा आसमान था सारा

वो सांप छोड़ दे डसना ये मै भी कहता हूँ
मगर न छोड़ेंगे लोग उसको गर न फुंकारा
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