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माँ / भाग ३ / मुनव्वर राना

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|सारणी=माँ / मुनव्वर राना
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गले मिलने को आपस में दुआयें रोज़ आती हैं
 
अभी मस्जिद के दरवाज़े पे माएँ रोज़ आती हैं
 
कभी —कभी मुझे यूँ भी अज़ाँ बुलाती है
 
शरीर बच्चे को जिस तरह माँ बुलाती है
 
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
 
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई
 
ऐ अँधेरे! देख ले मुँह तेरा काला हो गया
 
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया
 
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
 
माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है
 
मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
 
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ
 
मेरा खुलूस तो पूरब के गाँव जैसा है
 
सुलूक दुनिया का सौतेली माओं जैसा है
 
रौशनी देती हुई सब लालटेनें बुझ गईं
 
ख़त नहीं आया जो बेटों का तो माएँ बुझ गईं
 
वो मैला—सा बोसीदा—सा आँचल नहीं देखा
 
बरसों हुए हमने कोई पीपल नहीं देखा
 
कई बातें मुहब्बत सबको बुनियादी बताती है
 
जो परदादी बताती थी वही दादी बताती है
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