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कलकत्ता / नवारुण भट्टाचार्य

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|संग्रह=यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश / नवारुण भट्टाचार्य
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<poem>
नियॉन की वेश्याओं की फ़ास्फ़ोरस छाया में
नोचती रही है एक अद्भुत क्रेन शहर की शिराएँ-उपशिराएँ
कल-कल बहता जा रहा है, जमता जा रहा है शहर का रक्त
एक अलौकिक भिक्षापात्र जैसा चाँद
दाँतोँ में पकड़ भागता जाता है रात का कुत्ता
मैं एक निर्जन एम्बुलेंस चक्कर खा रहा हूँ उद्भट शहर में
मेरे लिए हरी आँख
का जलना या तो भाग्य है या संयोग
मैँ जिसे ले जाऊँगा उसे बचा नहीं पाएगा कोई
सारी देह चीथ डाली है स्टैब केस ने
सफ़ेद-सफ़ेद अबूझ मोहिनी नर्सोँ जैसे घर
इस अस्वस्थ शहर के हर मेनहोल के अंधकार में
चमक उठती हैं छुरियाँ
कहती हैं मेरे साहस को माँस की तरह बोटी-बोटी कर देंगी
मेरी खाल उतारकर हुक से उतार देंगी, ब्रह्मांड में गलाकटी हालत में

मैँने भी धार दे दी है दूध के दाँतों और बघनखों में
भीषण रोष है मेरा इस रहस्य का हिस्सा देना होगा मुझे
इस तमाम बाँटा-बाँटी के बाद मुझे रहना होगा निर्जन घर में
मुझे जकड़े रहेगी अनाथ आश्रम की आख़िरी प्रार्थना
कोई मुझे मृत घोषित करे, तब भी जीवित रहेंगे
मेरी आँखोँ के हीरे
लेकिन अभी नियॉन की वेश्याओं की फ़ास्फ़ोरस छाया में
शहर की शिराएँ-उपशिराएँ नोचे दे रही हैं एक अद्भुत क्रेन।
</poem>