भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>
हाथ उठे उठाए हैं मगर लब पे दुआ कोई नहींकी इबादत भी तो वो जिस की जज़ा <ref>प्रतिफल</ref> कोई नहीं
ये भी वक़्त आना था अब तो तू गोश हर -बर- आवाज़ <ref>आवाज़ पर कान लगाए हुए</ref> हैऔर मेरे बर्बाद-एबरबते-दिल <ref>सितार जैसा एक वाद्य यंत्र</ref> में सदा <ref>आवाज़्</ref> कोई नहीं
आ के अब तस्लीम कर लें तू नहीं तो मैं सही
वक़्त ने वो ख़ाक उड़ाई है के दिल के दश्त से
क़ाफ़िले गुज़रे हैं फिर भी नक़्श-एनक़्शे-पा <ref>पद-चिह्न</ref> कोई नहीं
ख़ुद को यूँ महसूर <ref>घिरा हुआ </ref> कर बैठा हूँ अपनी ज़ात <ref>अस्तित्व</ref> में
मंज़िलें चारों तरफ़ है रास्ता कोई नहीं
कैसे रस्तों से चले और किस जगह पहुँचे "फ़राज़"
या हुजूम-ए-दोस्ताँ <ref>दोस्तों का समूह</ref> था साथ या कोई नहीं
</poem>
{{KKMeaning}}