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सोहबत / संजय मिश्रा 'शौक'

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हमें तो बचपन से
ये बताया गया था बेटे
कि अच्छी सोहबत में बैठना तुम
ये अच्छी सोहबत की तरबियत ही
तुम्हारे जीवन को हर तरह से निखार देगी
संवार देगी
शूर की आँख खुलते ही मैंने देखा
कि फूल काँटों के बीच रह कर भी
मुतमईन है
और अपनी खुशबू को हर किसी पर लुटा रहा है
अजब लगा ये हसीन मंज़र!
ये क्या गज़ब है कि फूल
सोहबत की हर कहानी को आज झूठा बना रहा है
हजार काँटों की सोहबतों का
कोई असर ही नहीं है इस पर
ये अपने होटों के हर ताबस्सुमको
ज़िन्दगी का नकीब बनकर
उदास नस्लों को खुशमिजाजी सिखा रहा है
खमोश रहकर भी जैसे हमको
खुशी के नगमें सुना रहा है
तो सोहबतों का भी फायदा क्या?
खराब सोहबत का उस पे कोई असर नहीं है!
पता चला फिर ये राज उस दिन
कि अच्छे ज़हनों पे सोहबतों का असर नहीं है
ये बहरे-आलम के ऐसे नाविक हैं जिनको कोई भंवर नहीं है
सहीह होवे हर इक रवायत ये सच नहीं है
मगर गलत है हर इक रायत
ये कौले -फैसल नहीं है प्यारे
सो तुम भी अब से असीर रहकर न बात करना
रवायतों से अलग भी दुनिया है जाग जाओ</poem>