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हौसला / संजय मिश्रा 'शौक'

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मेरी शिकस्त
मेरा हौसला बढाती है
बहुत हसीन है फिर भी उम्मीद जीने की
जो मेरा साथ निभाती है साए की मानिंद
मगर ये साया भी तो साथ छोड़ देता है
कभी-कभी यही उम्मीद का दिया इकदम
जला तो रहता है लेकिन जिया नहीं मिलती
तो क्या ये सब भी इसी ज़िंदगी का हिस्सा है?
शिकस्त खा के मैं खुद को संभाल लेता हूँ
मैं अपनी फिक्र के सब ज़ाविए बदलता हूँ
मैं जानता हूँ मेरे अहद की ये जंगे-अज़ीम
गरीब ज़हनों की और भूके पेट लोगों की
सदा से चलती आई है मगर इस बार
शिकस्त खा के भी खुद को तवाना रक्खे है
इसे समेटना है अपने आप को फिर से
फिर एक बार नई जंग जीतने के लिए
तो इस शिकस्त का मातम नहीं करूंगा मैं !!!!</poem>