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|संग्रह=भटका मेघ / श्रीकांत वर्मा
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धूप से लिपटे हुए धुएँ सरीखे
केश, सब लहरा रहे हैं
प्राण तेरे स्कंध पर !!
प्राण मैं हूँ बवंडर,
जो कहीं पथरा गया।<br />गया ।आह! मैं कितनी शती से, यहाँ<br />तुझको जोहता हूँ,<br />किन्तु तूने नहीं पहिचाना मुझे।<br />पहचाना मुझे ।इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं।<br /><br />कहीं ।
किसी टहनी पर कहीं यदि डबडबाए फूल<br />अधरों को छुला दे,<br />बाँसुरी मेरी<br />उठाकर, किन्हीं लहरों में सिरा दे।<br />दे ।मुझे गा दे.............मुझे गा दे!!<br /><br />
घाट हूँ मैं भी मगर<br />मुझको नदी छूती नहीं है!!<br /><br />
सुबह से ही प्राण! तुझको मैं जोहता हूँ<br />पूछता हूँ,<br />झुंझकुरों से उठ तुझे गोहारता हूँ।<br /><br />हूँ ।
आह! मेरी सब पुकारें, मेघ बनकर भटकती हैं!<br />किन्तु तूने<br />नहीं पहिचाना मुझे!!<br /><br />
धूप से लिपटे हुए धूएँ धुएँ सरीखे<br />केश सब लहरा रहै हैं<br />प्राण तेरे स्कंध पर!<br />इन्हीं पत्तों में दबी है बाँसुरी मेरी कहीं!!</poem>