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|रचनाकार=जहीर कुरैशी
|संग्रह=समंदर ब्याहने आया नहीं है / जहीर कुरैशी
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<poem>
एकान्त काटने लगे ऐसा नहीं देखा
जंगल में भी स्वयं को अकेला नहीं देखा

लगता है इस शहर को अनिद्रा का रोग है
रातों को भी इसे कभी सोया नहीं देखा

मैं स्वप्न देखता हूँ मगर अपनी आँख से
मैंने पराई आँख से सपना नहीं देखा

तल में छिपाए रहती है कीचड़ की कालिमा
ऊपर से मैंने झील को मैला नहीं देखा

आता है घूम फिर के विहग घोंसले की ओर
नभ में किसी भी पंछी का डेरा नहीं देखा

उठता है जो मकान भरोसे की नींव पर
मैंने मकान वो कभी गिरता नहीं देखा

कैसे समझ सकोगे उजाले का मूल्य तुम
तुमने अगर अँधेरे का चेहरा नहीं देखा
</poem>