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|रचनाकार=जहीर कुरैशी
|संग्रह=समंदर ब्याहने आया नहीं है / जहीर कुरैशी
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<poem>
अभी तो फ़ैसला होना नहीं है
इसी कारण कोई चिंता नहीं है

न उसमें तेल रहाता है न बाती
वो दीपक है मगर जलता नहीं है

जिसे तुम भी अदेखा कर रहे हो
वो निर्मम सत्य है सपना नहीं है

उसे सब याद रहते हैं ज़ुबानी
वो शेरों को कहीं लिखता नहीं है

खड़ा है पेड़ स्थित-प्रज्ञ जैसा
बदन पर एक भी पत्ता नहीं है

यहाँ की सभ्यता बिल्कुल अलग है
शहर है यह कोई कस्बा नहीं है

बहुत अफ़सोस है कुँआरी नदी को
समंदर ब्याहने आया नहीं है


</poem>