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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
माना अब आकाश खुला-सा और धुला-सा
फैला-फैला नीला-नीला,
बर्फ़ जली-सी, पीली-पीली दूब हरी फिर,
जिपर खिलता फूल फबीला
:::तरु की निवारण डालों पर मूँगा, पन्ना
:::औ' दखिनहटे का झकझोरा,
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
माना, गाना गानेवाली चिड़ियाँ आईं,
सुन पड़ती कोकिल की बोली,
चली गई थी गर्म प्रदेशों में कुछ दिन को
जो, लौटी हंसों की टोली,
:::सजी-बजी बारात खड़ी है रंग-बिरंगी,
:::किंतु न दुल्हे के सिर जब तक
मंजरियों का मौर-मुकुट कोई पहनाए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
डार-पात सब पीत पुष्पमय कर लेता
अमलतास को कौन छिपाए,
सेमल और पलाशों ने सिंदूर-पताके
नहीं गगन में क्यों फहराए?
:::छोड़ नगर की सँकड़ी गलियाँ, घर-दर, बाहर
:::आया, पर फूली सरसों से
मीलों लंबे खेत नहीं दिखते पयराए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
प्रात: से संध्या तक पशुवत् मेहनत करके
चूर-चूर हो जाने पर भी,
एक बार भी तीन सैकड़े पैंसठ दिन में
पूरा पेट न खाने पर भी
:::मौसम की मदमस्त हवा पी जो हो उठते
:::हैं मतवाले, पागल, उनके
फाग-राग ने रातों रक्खा नहीं जगाए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
}}
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
माना अब आकाश खुला-सा और धुला-सा
फैला-फैला नीला-नीला,
बर्फ़ जली-सी, पीली-पीली दूब हरी फिर,
जिपर खिलता फूल फबीला
:::तरु की निवारण डालों पर मूँगा, पन्ना
:::औ' दखिनहटे का झकझोरा,
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
माना, गाना गानेवाली चिड़ियाँ आईं,
सुन पड़ती कोकिल की बोली,
चली गई थी गर्म प्रदेशों में कुछ दिन को
जो, लौटी हंसों की टोली,
:::सजी-बजी बारात खड़ी है रंग-बिरंगी,
:::किंतु न दुल्हे के सिर जब तक
मंजरियों का मौर-मुकुट कोई पहनाए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
डार-पात सब पीत पुष्पमय कर लेता
अमलतास को कौन छिपाए,
सेमल और पलाशों ने सिंदूर-पताके
नहीं गगन में क्यों फहराए?
:::छोड़ नगर की सँकड़ी गलियाँ, घर-दर, बाहर
:::आया, पर फूली सरसों से
मीलों लंबे खेत नहीं दिखते पयराए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
प्रात: से संध्या तक पशुवत् मेहनत करके
चूर-चूर हो जाने पर भी,
एक बार भी तीन सैकड़े पैंसठ दिन में
पूरा पेट न खाने पर भी
:::मौसम की मदमस्त हवा पी जो हो उठते
:::हैं मतवाले, पागल, उनके
फाग-राग ने रातों रक्खा नहीं जगाए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।
बौरे आमों पर बौराए भौंर न आए, कैसे समझूँ मधुऋतु आई।