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शहर / मिथिलेश श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कहीं से कोई आवाज़ नहीं आती
यह शहर ही ऐसा है
मौन बहती हुई नदी कुछ कहती नहीं
चहचहाती हुई चिड़िया छू लेती है आकाश
कोलाहल उसे डराता है यहाँ
एक आवाज़हीन जीवन के अभ्यस्त लोग
पसन्द करते हैं साँस रोककर एक कोने में खड़े हो जाना
खाँसना और छींकना मायूस बादशाह की मर्जी पर छोड़
क्षमा की याचना बार-बार करते हैं
पत्थर हुई सड़क उड़ती नहीं धूल
सिंथेटिक हुई हरी और मुलायम यहाँ की घास
घास पर चलना मना है घास सूख जाती है ।