भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शिला का ख़ून पीती थी / शमशेर बहादुर सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शिला का खून पीती थी
वह जड़
जो कि पत्थर थी स्वयं।

सीढ़ियाँ थीं बादलों की झूलतीं
टहनियों-सी।

और वह पक्का चबूतरा,
ढाल में चिकना:
सुतल था
आत्मा के कल्पतरु का?