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सखि! भँवरवा हो / जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
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चढ़ते मधुमास केहु-केहु भइल खास
सखि भंवरवा हो! अदबद कोढ़िए प जाय॥
चारो ओरी फूटे लगल प्रेमरगिया
काहें भुलाइल बाटे गहगह बगिया
अचके में आवे लगल केहु रास।
सखि भंवरवा हो! अदबद कोढ़िए प जाय॥
सौतिन लागेले टुसिआइल गछिया
काहें मुँह फेरलें आपन संघतिया
सोची सोची होता मनवा उदास।
सखि भंवरवा हो! अदबद कोढ़िए प जाय॥
गवें गवें प्रेम चढ़ल दिन रतिया
हिया डहकावेले पियउ क बतिया
सपनो में पाई पियवा फूलल परास।
सखि भंवरवा हो! अदबद कोढ़िए प जाय॥