सखी! मैं भई अति असहाय / हनुमानप्रसाद पोद्दार
सखी! मैं भई अति असहाय।
त्रिभुवन-मोहन स्याम हमारे भए बावरे हाय!
सहज चतुर-चूडामनि चिन्मय, सहज महामतिमान।
सकल ग्यान-आधार, ग्यान-निधि, आप स्वयं भगवान॥
संभव भयौ असंभव, तिन कौं निस्चै भयौ विकार।
भूले भले-बुरे के सगरे या तें सोच-बिचार॥
मो में सदा रूप-गुन-सुन्दरता कौ सहज अभाव।
मो प्रति बढ़त रहत तिनके मन तदपि नित नयौ चाव॥
मो में बृथा प्रेम करि मोहन रहे दुखहि सुख जान।
कैसे मिटै मोह-याधी यह तिनकी विषम महान॥
नहिं कोऊ दैवग्य, बैद जो करै जथार्थ निदान।
होय चिकित्सा, जासौं प्रियतम बनै स्वस्थ धीमान॥
मेरे कारन ’सुख-वंचित’ जो अग-जग के सुख-मूल।
कहा करूँ, कछु बस नहिं मेरौ, चुभत रहत हिय सूल॥
चतुर-भुजा नारायन कौं मैं पूजूँगी सबिधान।
करुन पुकार सुनतहीं तिन के पिघरि जायँगे प्रान॥
दै बरदान करेंगे मो कूँ कृपा-निधान निहाल।
बरन करैंगे रस-सुखदायिनि सुंदरि कोउ नँद-लाल॥
सुख साँचिलौ मिलैगौ तिन कौं, पाइ सरस रस-खान।
सुखी होयगौ तब मन मेरौ, तिन कौं सुखिया जान॥
यौं निस्चै करि करन लगी वह जप-तप परमानंद।
एक लालसा-पावैं प्रियतम अनुपम सुख स्वच्छंद॥