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सत्य / मनीष मूंदड़ा

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मैं इस सत्य से परिचित हूँ
मैं एक छोटा कण हूँ
इस दैदिव्यमान सृष्टि में
मैं क्षणभंगुर हूँ
मैं इस सत्य से परिचित हूँ

जीवन होता मृत्यु को अग्रसर
हर पल, हर क्षण
एक बूँद हूँ
इस अलौकिक महासागर में
घुलता, विलीन होता मैं
मैं इस सत्य से परिचित हूँ

पंचतत्व से बना हूँ मैं
पंचतत्व में विलीन हो जाऊँगा मैं
ना रूप रहेगा, ना प्रारूप रहेगा
ना शब्दों का दंश रहेगा
ना व्यथा होगी, ना अहंकार होगा
ना भय होगा, ना तिरस्कार होगा
मैं इस सत्य से परिचित हूँ

सब का विलय होगा
एक सृजनआत्मा में
तुम, मैं, वो
हम सब...
एक ही भस्म
एक ही तत्व
एक ही लय
एक ही गंतव्य
क्या तुम इस सत्य से परिचित हो?