भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सपनों में सतपुड़ा / प्रेमशंकर रघुवंशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझको अब भी सपनों में सतपुड़ा बुलाता है।
सघन वनों, शिखरों से ऊँची टेर लगाता है।।

कहता है जब तुम आते थे, उत्सव लगता था
तुम्हें देख गौरव से मेरा, भाल चमकता था
उसका मेरा पिता-पुत्र-सा, गहरा नाता है।।

कभी नाम लेकर पुकारता, कभी इशारों से
कभी ढेर संदेश पठाता, मुखर कछारों से
मेरी पदचापें सुनने को, कान लगाता है।।

गुइयों के संग जब भी मैं, जंगल में जाता था
भर-भर दोने शहद, करोंदी, रेनी लाता था
आज वही इन उपहारों की, याद दिलाता है।।

एक बार तो सपने में वो, इतना रोया था
अपनी क्षत विक्षत हालत में, खोया-खोया था
वह सपना चाहे जब मेरा, दिल दहलाता है।।

भूखे मिले पहाड़ी झरने, मन भर आया है
बोले पर्वत और हमारी सूखी काया है
अब तो बनवारी ही वन का तन कटवाता है।।