भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समधिन बरनन / रसलीन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग ललित

लाज भरी समधिन सुनि के अति समधी के मन भाए,
रहस खेल रस रेल करन कों सुभ दिन न्योत बुलाए।
समधिन हाथी को नहि चाहै ना रथ चहै अमोला,
समधिन चाहै बाँस चढ़न को लाये रँगीले डोला।
समधिन तीन लगाये आगें तीन कँहरवा पाछें,
तब काँधे धरि पाँव उठावै डोला को ले आछै।
समधिन के आगे डारत है रँग अति गाय नचैया,
छाती खोलि देत तब हाथन भर भर मुहर रुपैया।
समधिन मुख मीठो पाये तें समधी बतियन लोभा,
यातें डारत हैं सब समधिन के मुख मीठो चोभा।
समधँहि आन धरयो समधिन को हँस हँस बीरा हाथ,
समधिन मेलि दियो सब अपनी लै मुख चावन साथ।
जिन्ह कारन समधिन के गारी सुन सुन भयो अनंद,
सो रसलीन जगत मों जीवैं जब लौं सूरज चंद॥89॥