समय / विजेन्द्र
ढोर डाँगरा प्यासे मरते
भूखे मरते मिनख जवान
सूखा में सब रूख जरि गये
कहाँ सो रहा है भगवान
दूर-दूर तक ढूहा दिखें
छाया पत्ती देय न दिखया
पापी पाप करत नित घूमे
कोई साँच कहन न पाया।
सूखा बाड़ रोग नित मारें
मारें बहुत भीतरी मार
शत्रु मारै रौंद रौंद के
उसको देखे चढे बुखार।
बादर गरजै बिजुरी चमकै
थर-थर काँपत हैं किरसान
मुँह की बात कही न जावै
मन पै काई जीम दिखात।
रूखा-सूखा व्यंजन लागै
कथरी लागै नव पोशाक
मिनख मर रहे भूखे-प्यासे
कुत्तन पसुअन रोट खबाँय।
जनता आवै उठी उदधि सी
लहरें पत्थर से टकराँय
टूट रहे हैं भवन हवैली
टूटें कोट और दरबार।
कण-कण मे गति व्याप रही है
गति से पैनी होवै धार
ऊपर लगती नदिया थिर है
भीतर वैग बहै प्रवाह।
जहाँ-जहाँ तक आँखे जाती
दिखना घना तिमिर दिन रात
देख-देख के आँखें थक गईं
दिखी न अँजुरी भर उजियास।
सिर पै लादे कंकड़ पत्थर
कंधों लादें निज सन्तान
कहते सब समय बदल गयौ
गुरबा को ना है उपचार।
जून, 2005