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सवाल पंचतत्त्वों से, जो मेरी देह पर दावा करते हैं! / मुकेश निर्विकार

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ऐ जल! जरा बताओ तो सही-
कब आजाद हुए तुम
ठाकुर के कुएँ से?
और कितने आजाद हो सके हो अभी?

आने तो लगे हो तुम अब
हमारे भी कंठ तक
मगर हिचक ये तुम्हारी आखिर
क्यों नहीं जाती है?

ऐ हवा!
तुम भी कह दो जरा-
तुम जब भी चलीं
‘लू’ क्यों बनकर चलीं
हमारी तरफ?
छोड़ आती हो क्यों सारा
ठंडा असर
मुखिया की दुबारी या दालान में?
तुम्हारे झौकों की दरकार
हमको भी है
कोठरी है हमारी
अकुलाहट भरी!

ऐ धरा!
तुम भी सुन लो जरा
दिया कब निरापद
हमें आसरा?

तुमने अपनाया कितना
हमें अब तलक
कितना आँगन है बख्शा
हमार लिए?
सिर्फ फुटपाथ की दीन संतान हम
सर्वथा अनधिकृत
हर एक अधिकार से
पर वे बताते रहे
यूं रटाते रहे-
‘माता’ भूमि: पुत्रोउहम पृथिव्या’

ऐ अग्नि!
तुम तो बेशक
काम आयीं हमारे
रोटियाँ आधी
और झोपड़ियाँ पूरी जलाने में
अंतत: देह सुलगाने में भी
किन्तु कब हर सकीं तुम
हमारी दमित चेतना की ठिठुरन?

ऐ आकाश!
कब बख्शी है तुमने
उनमुक्तता जीवन में तनिक भी हमें
कब कराया है अहसास
अपनी अनन्तता का कभी
फैलने कब दिए तुमने डैने हमारे

कब भरने दी तुमने मनभर उड़ान
फड़फड़ाता रहा मनपाखी उम्र भर
निर्वात तुम्हारे सीखचों में फँसकर
सहमें रहे कल्पना-पक्षी हमारे

छोड़कर कभी उड़ भी न सके
जीवन की कठोर सच्चाई का धरातल
बेशक तना रहा उनके सिर के ऊपर
अनंत नील वितान तुम्हारा
नाहक...
निष्प्रयोज्य...
निरर्थक

ऐ आकाश! ऐ अग्नि! ऐ जल! ऐ वायु! ऐ धरती!
पंगु से पंचतत्त्व हो तुम मेरे इस विग्रह के
तुमसे नहीं, बल्कि बनी है यह देह
विकट वर्जनओं, विडंबनाओं, मजबूरीयों,
त्रासदियों व संत्रासों से
और इन्हीं सब में मिल भी जाएगी अंतत: खटकर

मेरे प्राण-पखेरूओं को चबा डालेंगी अंतत:
जीवन की तमाम मजबुरीयाँ

मेरी निष्प्राण देह पर तुम
फिर दावा ठोकते रहना!