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साँप-आवास समस्या / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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बिलों में रहते थे साँप।
सोचा-‘यहाँ तो रहता है घना अँधेरा,
वर्षा का पानी भी भर आता है।
चलो, पेड़ पर रहें; हाँ, चन्दन के पेड़ बड़े अनुकूल हैं।’
एक पेड़ खुला अधिक था,
पकड़े जाने का डर भी भारी था।
फिर सोचा-
‘वहाँ रहें-जहाँ कुछ-कुछ अँधेरा भी हो,
चन्दन की खुखबू भी हो-
विश्वास-भरे साँसी-सी मादक!
सर्दी से भी बचे रहें-
गरम रक्त की-सी कुछ ऊष्मा से;
हृदय की धड़कन का मृदु संगीत भी तो
कुछ सुनने को मिले!
रक्षित भी रहें, और खुले भी।
फैलाव के लिए गुंजायश भी हो।
लावारिसों की तरह, आदिवासियों की तरह-
सदियों तक, सहस्राब्दियों तक,
बचते-लुकते, रेंगते, भटकते,
कंुडली-मारते, फुँफकारते,
अब जा कर पाया है उन्होंने आवास एक-डीलक्स,
सुरक्षित और समशीतोष्ण,
सुविधाएँ जहाँ सारी-आस्तीन!