भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सावन के बरखा लाये हो / शकुंतला तरार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बरसत सावन भीजे मनभावन
उमड़ घुमड़ घटा छाये हो
सावन के बरखा लाये हो

मन के मछरी उधलना मारे
टेंगना कस टिंग-टिंग कूदे
अबक तबक मन हरेली मा अरझय
कुलक-कुलक मन गाये हो
सावन के बरखा लाये हो

बादर के संग मा मयं उड़ी-उड़ी जाववं
झिमिर झिमिर झरी बरसवं
फुदुक फुदुक मन मोरनी नाचे
जब कारी घटा घिर आये हो
सावन के बरखा लाये हो