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सिर चढ़ा सूरज / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
Kavita Kosh से
ओ
पृथ्वी द्वारा
सिर पर चढ़उए हुए सूरज!
क्षितिज के कंधों को
‘रनवे’ बना कर तुम
भर कर उड़ान वायुयान-सी
एक ही छलाँग में
पहुँच ही गए उस ऊँचाई पर
कि चढ़ गया तुम्हारा है
दिमाग आसमान में।
बोल तक पाते नहीं
एक भी शब्द पर
जब से निकलते हो
आग ही उगलते हो।
ंिकंतु, मित्र मेरे!
डगमगाई यह पृथ्वी तो
किसी डगमगाई पनिहारिन के
सिर के घड़े की तरह
नीचे आ गिरोगे तुम
धड़ाम से जमीन में।
टूक-टूक होकर
मिल जाओगे धूल में
हो तुम किस भूल में?
12.1.77