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सुनो अखबार ! / प्रताप सहगल

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(एक)
जानते हो अख़बार!
सालों पहले
मेरे एक गुरु ने कहा था मुझसे
अख़बार पढ़ा करो/यह दुनिया से जोड़ता है।

जानते हो अख़बार!
मैं तब से तुम्हें पढ़ने लगा रोज़
मेरी दुनिया फैलने लगी/तुम्हारी दुनिया के साथ
जुड़ने लगा मेरा संसार
तुम्हारे संसार के साथ
जानते हो न अख़बार!

तुम धीरे-धीरे मेरे सिर पर सवार हो गए
मैंने कोई प्रतिरोध भी नहीं किया
शब्दों और छवियों में फैला संसार
मेरे सिर पर नाचने लगा
मैंने कोई विरोध भी नहीं किया
और सालों से यह सिलसिला जारी है
पर एक बात बताओ अख़बार!
पहले तुम्हारे साथ
मैं फैलता था/अब डरता हूं
तुम्हें देखते ही
मुझे डर क्यों लगता है?
बताओ न अख़बार!

(दो)
आज़ादी के बाद
जब चौखम्भा इमारत की तामीर हम करने लगे
तो इस इमारत के चौथे खम्भे तुम बने
जानते हो न अख़बार!

तीन खम्भों की कमज़ोरी को
झेलते हो तुम
सम्भालते हो तुम
पूरी इमारत को ठेलते हो तुम
जानते हो न अख़बार!
इन खम्भों की अन्दरूनी हलचलों को
परोसते हो रोज़ सवेरे
चाय के साथ

जानते हो अख़बार!
चौथे खम्भे का शरीर
चटखने लगा है
आत्मा कांपने लगी है
इमारत में चौथे खम्भे की ज़रूरत को
समझते हो न अख़बार!

(तीन)
जब शहर से बाहर होता हूं
अजाने लोगों और पेड़ों के साथ
जब अख़बार नहीं होता मेरे पास
नींद बड़े चैन की आती है
तुम्हें यह पता तो नहीं होगा अख़बार!
जंगल में चिड़िया
बड़े चैन से गाती है।

(चार)
सुनो अख़बार!
जब सुबह तुम दस्तक देते हो
तुम्हें खोलता हूं
पढ़ता हूं/अपने समय के इतिहास का कच्चा मसौदा
पढ़ता हूं/दीवारों पर लिखी इबारतें
और देखता हूं
जनतन्त्री इमारत के सामने खड़ा
एक मुस्तैद प्रहरी
तुम्हें कई बार अपनी कविता के सामने खड़ा करता हूं
कविता के आइने में दिखाता हूं
तुम्हें तुम्हारा चेहरा।
चेहरा/जिसमें इतिहास का कच्चा मसौदा है
दीवारों पर लिखी इबारतें हैं
प्रहरी की चौकन्नी मुस्तैदी है
कविता के चेहरे से
अलग एक चेहरा बनता है
और तुम्हारे हाथ में जलती मशाल है
पर सुनो अख़बार!
चौकन्नी मुस्तैदी और जलती मशाल के बावजूद
इमारत के दरवाज़े
चोर दिशा में क्यों खुलते हैं
और तुम खामोश रहते हो
इस सारे षड्यन्त्र में
कहीं तुम भी शामिल तो नहीं अख़बार!

(पांच)
जब आवाज़ पर
सत्ता का कब्ज़ा हो
और रूपहले डिब्बे पर शिकंजा/तब
तुम्हारे शब्द से बड़ी उम्मीद होती है अख़बार!
शब्द जब बांसुरी होते हैं
या सत्ता की सुरंग में लगे डायनामाइट
शब्द जब घाव होते हैं
तन्त्र के सीने पर
या जब मरहम होते हैं शब्द
समाज की तलछट से रिसते घावों पर
शब्द जब दुखते सिर पर
नरम हाथ होते हैं
या डगमगाते पांवों के लिए/लाठी होते हैं शब्द
तब तुम भी ब्रह्मा होते हो अख़बार
सुनो अख़बार!
क्या तुम यह सच जानते हो?