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सुबह / सविता सिंह
Kavita Kosh से
जागती नहीं सुबह सबकी तरह किसी निश्चित समय पर
जगी रहती है बैठी देखती हुई बिताती रात
सुख- दुख के अदभुत नृत्य
आलिंगन और संताप
सुनती हुई मौन के विकल आलाप
फड़फड़ाकर गिरना किसी चिड़िया का स्वप्न से बाहर
सुबक कर सोये किसी बच्चे की डूबती साँस
करती हुई नहीं मगर कोई यत्न उबारने या बचाने का किसी को
विरल निःसंगता में घटित होने देती है सब कुछ
जैसे उन्हें होना है किसी नियति के तहत
नहीं आती सुबह यूँ ही कभी औचक
वह चली रहती है रात से ही
जैसे कोई स्वप्न पिछली नीन्द से