सुबह के पक्ष में / योगेंद्र कृष्णा
जबतक कि मैं
एक सांस लेकर
दूसरी छोड़ रहा होता हूं
ठीक इसी अंतराल में
हो चुके होते हैं कई-कई हादसे
हमारे इस शहर में
जबतक कि मैं
सुबह की चाय के साथ
ले रहा होता हूं
राहत की एक लंबी सांस
अपहृत हो चुका होता है
पूरा का पूरा एक लोकतंत्र
ठीक मेरे पड़ोस में...
अपनी जड़ों से बेदखल हो चुकी होती है
तिनके-तिनके सहेजी अनगढ़ एक दुनिया
जबतक कि
शाही बाग का वह अदना-सा माली
तपती गर्मियों में छिड़कता है पानी
एक फूल से दूसरे फूल तक
घिसट रही होती है
उसकी अपनी दुनिया
एक अंधे कुएं से
दूसरे कुएं तक
सिर पर गागर और
गोद में बच्चा उठाए
कई कई बेचैन रतजगों के बाद
एक और सुबह की तलाश में
और जबतक कि मैं
उनकी दुनिया में
पानीदार सुबह की संभावनाओं
के पक्ष में रचता हूं
अपनी ही दुनिया के विरुद्ध
अपनी कविता का अंतिम कोई बयान
रिस-रिस कर बह जाता है शब्दों से पानी
और सुबह तक
सूखे पत्तों की तरह बजते हैं शब्द