भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सूखी नदी-सा / रमेश चंद्र पंत
Kavita Kosh से
पुल हमें
था जोड़ता जो ढह गया !
बात थी
कुछ भी नहीं
थे स्वार्थ अंधे
व्यग्र थे उद्धत बहुत
हो उठे कंधे
एक सूनापन
है मन में, गड़ गया !
थे ग़लत
कोई नहीं
पर, कौन सुनता
बर्छियाँ ताने सभी थे
कौन झुकता
मन कहीं
सूखी नदी-सा हो गया !