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स्फुट दोहे / रसलीन

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भाव लक्षण प्रथम वर्णन का कारण

बिबचारी थाई दोऊ फैलौ जिहि जिय जान।
पहले लच्छन भाव को बरनन कीन्हौं आन॥1॥

रतिभाव उदाहरण

बात कहति ज्यों फूल झरि लीन्हों कुचन सम्हार।
प्रान लिये सुनके कछू बिगँसे मन में मार॥2॥

नायिका गुण वर्णन

रति सर करनि अनूप अरु बानी परम सुजान।
कमला सो मन को हरै यहि नायिका बखान॥3॥

नायिका गुण-कथन

सुकिया पत पति की धरे परकीया रसलीन।
सो स्वाधीना नायिका जो धन के आधीन॥4॥

ज्ञातयौवना-वर्णन

त्वरित नैन सीखी मटक राखत पाय सम्हार।
बारंबार निहार पिय अचरा लेत सँवार॥5॥

मुग्धा का मान

मेरे घर काट्यो कबौं पिय के कहत पुकार।
मान छाँड़ि बोली तिया आवत कहें नकार॥6॥

मध्या उन्नतकामा

लाज हिए बैठे लिए संग छरी कर माँह।
लेन देत नहिं नैन भर प्रीतम मुँख के छाँह॥7॥

मध्या प्रगल्भवचना

रैन बढ़ै अब माँह ते तुम जानत मन माँह।
बसर लाज इन देख निसि तजत संग नहिं छाँह॥8॥

मदनमदमाती प्रौढ़ा

बचन लजीले मुख करत किते रसीले घात।
निरख कसीले बदन को छुईमुई ह्वै जात॥9॥

ताके नयनन में रमन लखत अरज के घात।
जा धन के मन हितनु तनु मह मह महके बात॥10॥

धीराखंडिता विवेक-प्रसंग-वर्णन

जो धीरादिक खंडिता में नहिं मानत भेद।
तिनके इनके भेद मैं परत नहीं कछु खेद॥11॥

जिन बिबेक में आपनों चित दीन्हौं है ल्याय।
तिन राखो इन भेद सों भिन्न भिन्न ठहराय॥12॥

व्यंगादिक धीरादि को मूल कहत सब कोय।
सुरचि चिन्ह खंडितादि को मूल धरत कबि लोय॥13॥

यातें बरनत हैं नहीं बेगि खंडिता माँहि।
सुरति चिन्ह धीरादि में कबिजन मानत नाहि॥14॥

मध्याधीरा

अधरन सो मुख स्याम के बाँध दिए तुम नैन।
याते अधरन मौन हैं नैन करत हैं बैंन॥15॥

लच्छन तिन्ह को कहि सके कोमल हिया रसाल।
जो मद होत कठोर तो कैसे उपटत भाल॥16॥

प्रौढ़ा अधीरा

भयो फूल के हस्त में पट सुख फूल बनाय।
गवन करेउ रन भामिनी मन ही मन पछताय॥17॥

उद्बोधिता

रे पंथी जानत न तू परत चुरान्ह गाँव।
अप्पन हित मैं देत हूँ तोहि द्वार पै ठाँव॥18॥

पथिक जात घर निसि भए मो घर अच्छे ठौर।
पटके पलका पौढ़िए जन धन धरिए और॥19॥

क्रियाविदग्धा

पाछे ह्वै नंदलाल को बोल सुनत हैं बाल।
द्वार हने ते लाल को निसकर हेरत लाल॥20॥

परकीया सुरतांत

कुंजन तजि निज भवन को चलिए स्याम सुजान।
रैन घटे ससि हूँ डुबे चाह्यो भयो बिहान॥21॥

स्वकीया अनुरागिनी

लाल रदन छत जो लख्यौ मन रोचत तिय आय।
कर मुदरी के मुकुर में तिन देख्यौ जिन जाय॥22॥

सुरतिदुःखिता

लखत न परतिय चित्र हूँ ये जानत अपबित्र।
सखी हमारे मित्र की हैयह रीति बिचित्र॥23॥

गुनगर्विता
अपने पनघट बैठिए हो अभीर बेपीर।
कत रोकै मगु काज बिनु बढ़े कलन की भीर॥24॥

कंत किए बहु घत जलद जोहति तव नित आय।
नाव बदल बोलाय तुव तऊ न परत लखाय॥25॥

तो हित सकल सकार हूँ गोपन भेष बनाय।
अधरन धरिहौ यै सोई मन से अधरन ल्याय॥26॥

वियोग मानकथन

है बियोग के भेद में मान रहे जिय जानि।
निजबिय को ठनगन समझ यहाँ धरे कबि आनि॥27॥

वासकसज्जा

यों पिय मग कुंजन लखत प्रिय दृग रूप लखाइ।
मनों भँवरि चहुँदिसि रही बेलि बेलि मड़राइ॥28॥

उत्कंठिता

प्रात महावर नब अरुन यह अब आनन आइ।
नवल बधू मुख मुदवत भयो चंद के भाइ॥29॥

प्रौढ़ा खंडिता

पिय तन नख लख यों दरो यह नग आयो आय।
मनु मधुकर मकरंद को ओखलि में फिर खाय॥30॥

पयोनी उदाहरण

धनि तन लख दृग दूर ते भ्रमत रहत ज्यौं भौर।
मनो सकल जग रूप रस आन भयौ इक ठौर॥31॥

गुनमानी नायक

निज बंसी के सूर में भूले नंदकिसोर।
लखत नहीं दृग कोर ते काहू तिय की ओर॥32॥

नायिका बरनन

तिथ में रति की नायिका, मनमथ हाथ अधीन।
बातन हित चित लायके, तिहिं बरनत रसलीन॥33॥

मध्या धीरा में बुधजन आकृति गोपना

बुध जन आकृति गोपिता, और सादरा बिसेख।
मध्या धीराधीर में, बरनत आनि बिसेख॥34॥

साध्या असाध्या बरनन

ऊढ़ अनूढ़ा दुहुन में होत असाध्या आन।
सुखसाध्या सब ऊढ़ में, कोऊ दुहुन में जान॥35॥



अन्य स्फुट दोहे तथा टूट आदि


हरत नाहि ऐ कपि कोऊ, क्यों दधि बेचत जाय।
चौंथ बसन नख लाय तन परकी लेत छुटाय॥36॥

औरन के ढिग फूल लखि, निंदित होत जिय बाल।
तेरे हित हूँ ल्यायहों, कुंजन तें गुहि भाल॥37॥

ढरत मानिनी दृगन तें, अँसुवा बूँद बिसाल।
मनो मानसर कमल तें, झरत मुकुत की माल॥38॥

चुवत असु तिय दृगन तें, यों सुखमा अवदोत।
धोखे चुँगे पचे न मनु उगलत खंजन जोत॥39॥

पर तिय देखत पिय चितै, नाम सुनत ही कान।
चिन्ह लखें तिय होत है, लघु मद्धिम गुरु मान॥40॥

लघु छूटत है सहज ही, मद्धिम सौंहन माहि।
भेद मान गुरु छूटि पुन सामादिक तें जाहिं॥41॥

धन पर तिय तन लखत ही, पिय आँखिन लहि सैन।
रहे कोप आरोप के, सदन ओप दे मैन॥42॥

पिय टोकत बोले न तिय, तब रसलीन निदान।
खैंचत बांह कमान के, छुट्यो बान ज्यों मान॥43॥

धरम अवस्था जाति गुन, भेद तीन के होत।
धरम सुभाव अरु जाति गुन, नायक भेद उदोत॥44॥

एक प्रोखन को आनके, बरनत हैं कबिलोय।
और अवस्था में नहीं, कोऊ बरनबे जोग॥45॥

हरि राधा, राधा हरी, होत रूप चख आज।
फिर समझत हीं आपको, निरखि निरखि निज साज॥46॥

जा तिय सों नहिं नायिका, कछू छुपावे बात।
औ राखे निज पास नित, सोई सखी उदात॥47॥

बोलत ही पर नारि सों, तजि पिय देखे आन।
याहू तें गुरू मान तिय, मन उपजत जिय जाल॥48॥

बात कहत तिय और सों, तज प्रीतम को पाय।
कँवल बदन तिय को गयो, बातहि में कुम्हलाय॥49॥

साम बात समुझाइबो दाम दीन्ह कछु ल्याय।
भेद सखिन अपनाइबो, भय दीबो डरपाय॥50॥

मान मचावन बुधि तजत, भय उपजाय अंग।
सो प्रसंग बिधस जहाँ कहे और प्रसंग॥51॥

पाय परन को कहत हैं, प्रनत सकल को ग्यान।
ये सब सात उपाय हैं, तिनको करों बखान॥52॥

जिहिं तन पानिप में भए, मीन रहत हैं नैन।
तिहिं बिच मन अब कौन बिधि, कहो राखिए चैन॥53॥

आयो धनी बिदेस तें, मिलत रोइ हँसि बाल।
अँसुवन से ढारत मुकुत दसनन मानिक माल॥54॥

तिनके भेद अनेक हैं, बरनन करै बनाय।
इहिं बिधि गनना तियन की, बहुत भाँति बँधि जाय॥55॥

ज्यों गहरे अनहात अरु, धोवत मलि मलि गात।
त्यों ही मो मन बाल तन, पानिप माँहि अन्हात॥56॥

तिय तन अति पानिप गहि, चख चंचल लहि रूप।
थर थर ह्वै फर फर करत, हरि मन कल कल रूप॥57॥

चलो इहौ से यह भलो, ल्याये स्वांग बनाय।
फिर ताके उलटे कहा, बिनु पाथ उतराय॥58॥

को न भई काके नहीं, जोबन आयो गात।
तोहिं अनोखी अति लगी, सुनत न चोखी बात॥59॥

नैन फेरिबो भ्रू चलन, मुख चख तें मुसकान।
मधुर बचन भुज डोलन-यह अनुभाव बखान॥60॥

कर आए हो आप हीं, पिय की सकल बनाय।
छलो चितै कर रावरे, छलो निकोऊ जाय॥61॥

यह अनुभाव अरु हाव में दूजो भेद अवदोत।
वे दिए स्वभाविक होत नहिं, ये स्वभाविक होत॥62॥

अंग अंग पर आभरन, पहरे ललित सो होय।
बिनु अभरन के ठोरई, छबि बिच्छत में होय॥63॥

भ्रू बसन चितवन हँसन, अरु बोलन मृदु बानि।
यह तेरी गति कौन की, हरत नहीं मन आनि॥64॥

जदपि चली है आभरन, सबे साज तू आज।
तदपि अधिक मनहरन है, तिय नूपर की बाज॥65॥

इन सिँगार बिनु तन सजें, प्रीतम को अपनाय।
सौतन के भूखन सखल, दूखन खरे बनाय॥66॥

एक एक ते सरिस सज, ऐन सकल सिंगार।
तोऊ गई हिय हार के, लखि तुव हरि को हार॥67॥

बात होय सो दूर तें, दीजे मोहि सुनाय।
कारे हाथन जनि गहो, लाल चूनरी आय॥68॥

लखि निसंक पिय नैन भरि, धरी सखिन की आन।
पीपर भोवर तन भरे, पिय पर भाँवर प्रान॥69॥

मिलन हमारो जो सदा, चाहत हो मन माँह।
तो इन कुंजन में सदा, जनि पकरो मम बाँह॥70॥

अरथ मोटई को प्रकट, थामें होत लखाय।
ता मैं मन में आनि यह, मोटायत ठहराय॥71॥

स्याम को साथ तिया लखि, निज छाँह भरमाय।
डरी झकी रोई छकी, हँसी आप कों पाय॥72॥

पिय की चाह सखिन कहीं, फूल सुदरसन पाय।
ऊतर दीनो नागरी, छाती पुहप लगाय॥73॥

दोऊ बिधि इन नैन कों, सुख को नहीं प्रसग।
बिछुरे तरफत हैं सबै, भेंटत होत॥74॥

रति बढ़ि भए सिंगार सब, हाव होत हैं आन।
पुनि ताही के अति बढ़े, हेला मन में जान॥75॥

ललन बसन किए तोर के, सौतन के अभिमान।
बिन सिगार तुव मधुरता, भई सिगार समान॥76॥

हौ अहीर सिसुपाल नृप, ताहि तज्यो कत तीय।
घर अचेत रुकमन परी, सुनत गयो उड़ि जीय॥77॥

बिसनादिक तजि देवता, कहा बरयो मोहि आय।
सिव बोलत यह भूमि पै, गिरी सिवा मुरझाय॥78॥

अथ मन बिभचारी बरनन।

प्रेम रु भय बिरहादि तें, मुँह सों कहे न भाव।
तन बेदन तें रोग कहि, बरनत बेद सुभाव॥79॥

मान ग्यान कुल कानि सब, सीस नहीं क्यों जाय।
सखी स्यामघन की सुरत, मो हिय तें जनि जाय॥80॥

तिय लखि पिय चख तुव परी, अचल भई अभिराम।
मनु भितरहुँ बैठे भँवर, कमलन को कर धाम॥81॥

पुनि बियोग के भेद ये, द्वै बिधि किए प्रकास।
प्रथम पूर्बानुराग अरु, द्वितिय जान परिहास॥82॥

बहुरि कहत रसलीन द्वै, बिधि पूरबानुराग।
एक सुने दूजे लखे, गहे प्रेम के लाग॥83॥

निपट निलज यह जलज सुत, जिहिं न नेह को ग्यान।
हरि मुख निरखत नैन बिच, पलक रचे जिन आय॥84॥

गोगन गोहन जात बन, मोहन सोहन स्याम।
पलक कल्प सम कल्प ज्यों, बलि बीतत इहिं नाम॥85॥

दुतिय बियोग परिहास जो, पिय प्यारी द्वै देस।
जामें नेक सुहात नहिं, उद्दीपन को लेस॥86॥