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हत्या: एक कला / ब्रजेश कृष्ण

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बाज़ार के इस दौर में
हत्या भी एक कला है
उन्हें न दस्ताने चाहिए
न हथियार न मुखौटे न रात का अँधेरा
वे सिर्फ एक जाल फेंकते हैं अदृश्य
लुभावने दृश्य का
और हम उनकी गिरफ़्त में होते हैं लगातार

बाज़ार के इस दौर में
पहले होती है विचार की हत्या
फिर संवाद मारा जाता है
फिर मारे जाते हैं रिश्ते और हम
हमेंपता ही नहीं चलता
कि कब चौराहों की
आदमक़द मूर्तियों के सिर काट डाले गये
और कब हम पूजने लगे
हत्यारों के बुतों को

बाज़ार के इस दौर में
हममें से कोई नहीं देखता हत्या
और कभी नहीं पकड़ा जाता हत्यारा
क्योंकि हत्या एक कला है
बाज़ार के इस दौर में।