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हम-तुम / देवेन्द्र कुमार
Kavita Kosh से
रात हुई गूँगी
दिन बहरे,
हम-तुम कहाँ
आकर ठहरे !
रह रह के
चुभता सन्नाटा
पैरों में
ऊँगली का काँटा
शाखों के घाव हुए
गहरे ।
नीचे-ऊपर होती साँसें
कुएँ में लटक रही घासें
पानी पर नावों के
पहरे ।
छोड़कर किनारों का बैठना
देख रहा लहरों का ऐंठना
शीशे में क़ैद हुए
चेहरे ।