हमसे तो बेहतर हैं रंग (कविता) / शरद कोकास
वनबाला की ठोढ़ी पर गुदने में हँसा
आम की बौर में महका
पका गेहूँ की बालियों में
अंगूठी में जड़े पन्ने में चहका
धनिया मिर्च की चटनी में घुलकर
स्वाद के रिश्तों में बंधा
अस्पताल के पर्दों पर लहराया
सैनिकों की आँख में
ठंडक बनकर बसा
नीम की पत्तियों से लेकर
अंजता के चित्रों में
यह रंग मुस्काया
सावन की मस्ती को उसने
फ़कीरों के लिबास में
हर दिल तक पहुँचाया
आश्चर्य हुआ जानकर
कि किसी खास वज़ह से
कुछ लोगों को यह रंग पसंद नहीं
उन्हें पसंद है
वीरों के साफे का रंग
माया मोह से विरक्ति का रंग
रंग जो टेसू के फूलों में जा बसा
बसंती बयार में बहता रहा
सजता रहा ललनाओं की मांग में
क्षितिज में आशा की किरण बना
पत्थरों पर चढ़ा
माथे का तिलक बना जो रंग
विपत्तियों से रक्षा की जिसने भयमुक्त किया
कभी धरती से निकले मूंगे में जा बसा
कीाी बिरयानी के चावलों पर जा सजा
आश्चर्य हुआ जानकर
कि कुछ लोगों की
उस रंग से भी दुश्मनी है
उन्हें वह रंग पसंद है इसलिए उन्हें वे लोग पसंद नहीं
इन्हें यह रंग पसंद है इसलिए उन्हें ये लोग पसंद नहीं
अब रंगों को आधार बनाकर लड़ने वालों से
यह कहना तो बेमानी होगा
कि करोड़ों साल पहले हम भी उसी तरह बने थे
जिस तरह बने थे ये रंग
जो आपस में लड़े नहीं
प्यार किया गले मिले और नया रंग बना लिया।
-2002