भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरा- भरा कोई फलदार कोई ठूँठ रहा / दरवेश भारती

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हरा- भरा कोई फलदार कोई ठूँठ रहा
दरख़्त ही तो है इन्सान बाग़े-आलम का

जब आज ग़ौर से देखा उसे तो ऐसा लगा
मुँडेर पर हो रखा जैसे कोई बुझता दिया

न जाने कैसी लगायी थी रहनुमाओं ने
तमाम शह्र मिला आग में झुलसता हुआ

वो इन्क़लाब के नारे जो गूँजे थे घर-घर
दबा दिये गये यूँ उनका कुछ पता न चला

ये ख़्वाहिशें हैं मिटेंगी न ये किसी सूरत
मुफ़ीद इनके लिए है कोई दवा न दुआ

उसे न आदमी कहिये कि इक फ़रिश्ता था वो
पराई आग में जो अपनी जां पे खेल गया

कहाँ सुकून मयस्सर हुआ उसे 'दरवेश'
अना को मान लिया जिसने अपना राहनुमा