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हसरत निकल न पाई मगर दम निकल गया / सिया सचदेव

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हसरत निकल न पाई मगर दम निकल गया
अच्छा हुआ ये ज़िन्दगी का ग़म निकल गया

लफ़्ज़ों में अब तो आपके मैं का मक़ाम है
गुफ़्तार से वो प्यार भरा हम निकल गया

ऐ इश्क़ तेरी सम्त नज़र जब कभी पड़ी
दिल से हमारे शुबहा-ए-पैहम निकल गया

ख़ुद हम उलझ के रह गए ऐ जान-ए-शायरी
ग़ज़लों से हमने माना हर इक ख़म निकल गया

मुद्दत के बाद जाके हमें आया अब करार
जो कर रहा था दीदा-ए-पुरनम निकल गया

मैं शायरी के दम से ही जिंदा हूँ ऐ सिया
ग़र ये न हो तो समझो मेरा दम निकल गया