भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हाउ पानिक पिन / गिरीश चंद्र तिबाडी 'गिर्दा'
Kavita Kosh से
सोचि ल्यूछा त सोच पड़नी, कौ भे मी, का बटी ऐ
रूडीनिक जसी बरख सुदे, अरख, बरख, काँ हु गे !
और उसिक सोचि ल्यूछा त, मई लिहबहर दुनी भे,!
सूरज में उजियाव भे म्यर, जौडनी में रौशनी भे, !
और उसिक औकात कूछा, तीन में न तेर में,
द्वि सोरा मुरलिक सर, भ्यार में न भीटर में!
जानी कभत फ्यासस करी दियो, हाउ की त जात भे!
यो जौलिया मुरुलिक और चलण तककी बात भे !
पर जतुक भे, जे ले भे, यो सब तेरी करामात भे!
वो रे हाउ पानिक पिना. तेरो ले बात भे!
सोचि ल्यूछा त सोच पड़नी !