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हिम नहीं यह / जगदीश गुप्त
Kavita Kosh से
हिम-जलद, हिम-श्रृंग
हिम-छिव,
हिम-दिवस, हिम-रात,
हिम-पुलिन, हिम-पन्थ;
हिम-तरू,
हिम-क्षितिज, हिम-पात।
आँख ने
हिम-रूप को
जी-भर सहा है।
सब कहीं हिम है
मगर मन में अभी तक
स्पन्दनों का
उष्ण-जलवाही विभामय स्त्रोत
अविरल बह रहा है
हिम नहीं यह -
इन मनस्वी पत्थरों पर
निष्कलुष हो
जम गया सौन्दयर्।
यह हिमानी भी नहीं -
शान्त घाटी में
पिघल कर बह रही
अविराम पावनता।
आैर यह सरिता कि जैसे
स्नेह का उद्दाम कोमल पाश
अनगिनत प्रतिबम्ब रच कर
बाँधती हो भूमि से आकाश।