भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

'लौकिक-संकेत' कविता-क्रम से-2 / मरीना स्विताएवा / वरयाम सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाँहें — घिरी हुईं
क्रय-विक्रय, लाभ-हानि से ।
ग़लती न कर बैठूँ
इन होंठों, इन हाथों को पहचानने में !

ग़लती न कर बैठूँ
चैन न देते इस अहम् को पहचानने में ।
हाथ उठाए मैं आज, ओ मित्र,
आह्वान करती हूँ अपनी ही याददाश्त का !

ताकि कविताओं में
(मेरी महानताओं के कूड़ादान में !)
फेंक न सको तुम
सब रिश्ते, सब समानताएँ ।

ताकि छाती में
( मेरे सहोदरों की क़ब्र में)
तुम प्रतीक्षा कर सको जब तक बारिशें
नहलाकर पापमुक्त न कर दें तुम्हें !

जिस्मों के बीच जिस्म —
दो तारों का भ्रम रहे हो तुम !
सड़ न सको क़ब्र की नामपट्टी के साथ
इसीलिए हो अज्ञात अभी तक । 
 
20 नवम्बर 1921
मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह