अपनी मर्ज़ी का एक क्षण / शलभ श्रीराम सिंह
अन्धेरे में खुली खिडकियों के अन्धेरे
आपस में बात कर रहे हैं
बात कर रही हैं अन्धेरे में चलती पगडंडियाँ
हवाएँ बात कर रही हैं आपस में चुपचाप
एक जवान लडकी घर से बाहर निकल रही है।
अपने बिस्तर से उठ रही है लडकी
लिहाफ़ के बाहर निकल रहा है उसका शरीर
ज़मीन पर रख रही है क़दम आहिस्ता...
सन्नाटे में
नींद के अलग-अलग स्वरों की
पड़ताल करते
उसके कानों को यकीन आ रहा है धीरे-धीरे
धीरे-धीरे कमरे से बाहर निकल रही है लडकी।
किसी पत्ते पर पड़ गया है पाँव
नये कपड़े की तरह फटा है सन्नाटा
चीख़ रही है पूरी ताकत से रात की चिड़िया
सर से पाँव तक काँप गई है लडकी एक बार।
पगडंडियों ने पगडंडियों को आगाह किया
खिड़कियों ने खिड़कियों को,
आगाह किया हवाओं ने हवाओं को
घर से बाहर निकल रही है लड़की
खेत में खडी फसल निहार रही है उसे
निहार रही है रास्ते की घास।
बगीचे के पेड़ निहार रहे है उसको
निहार रही है पूरी की पूरी कायनात
ईख का खेत होती जा रही है लडकी
ख़ुद की कीमत पर पाने के लिए अपनी मर्ज़ी का
एक क्षण
रचनाकाल : 1992, विदिशा