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अपने ही घर में कोई मुझे जानता नहीं / डी. एम. मिश्र

अपने ही घर में कोई मुझे जानता नहीं
मेआर मेरा क्या है कोई देखता नहीं

कैसे कहूँ नज़रों का ये उसके क़सूर है
वो साथ रह के भी मुझे पहचानता नहीं

सब ढूँढते बलवान और खाये पिये को
कमज़ोर को कोई भी घास डालता नहीं

दिन - रात लहू मेरा पिये जा रहा है वो
कहता है फिर भी मुझ से वो कुछ चाहता नहीं

बाहर की अफ़सरी मेरी बाहर ही रह गयी
घर पर मेरा आदेश कोई मानता नहीं

आँधी ही अब शमा को बुझा दे तो बात और
मैदान से परवाना कभी भागता नहीं