अब कुछ उस पार की भी सोचो / देवेन्द्र आर्य
अब कुछ उस पार की भी सोचो।
जिस पार कोई संसार नहीं
मृग-तृष्णा का व्यापार नहीं
ऐसे घर- बार की भी सोचो।
बस प्यार-प्यार
जी अगुताया
चूल्हा-चौका तो लक-दक है
पर जीवन कीचड़ धिसराया
पहने पहने इन चरक चढ़े कपड़ों से मन आजिज़
आया
कुछ लुंगी छाप समय भी हो
थोड़ा तकरार की भी सोचो।
अब आप टप्प से बोलेंगे
मेरे भीतर की छिपी हुई सारी जड़ताएँ खोलेंगे
है कौन यहाँ परिपूर्ण मियाँ
चौबिस कैरेट का , देखूँ तो !
जीवन भर औरों की सोचे
अपने किरदार की भी सोचो।
पेंशन के दिन नज़दीक हुए
हम कभी कभार याद आ जाने वाली एक तारीख़ हुए
जितने भी तीर मारने थे सब मार चुके
सुन बे जहुए
जबतक गोदाम न खाली हो
तो नया माल आये कैसे
कुछ तो बाज़ार की भी सोचो।
हरदम गरिष्ट ही नहीं, कभी
थोड़ा बेकार की भी सोचो।