अब के आफत ऐसी बरसी दीवारो।दर टूट गए / अशोक अंजुम
अब के आफ़त ऐसी बरसी दीवारो-दर टूट गए
इस बारिश में जाने कितने मिट्टी के घर टूट गए
लोगों की जां ले लेती है कभी-कभी इक ठोकर भी
और कभी जिस्मों को छूकर तीखे खंज़र टूट गए
कुछ तो है जो सच की खातिर सारे नियम बदलता है
शीशे से टकराकर वरना कैसे पत्थर टूट गए
जब तक हम अपने थे तब तक सपने थे उम्मीदें थीं
ऐ रहबर सच कहते हैं हम तेरे होकर टूट गए
आता नहीं सलीक़ा सबको सुनने का और गुनने का
बेशऊर लोगों में आकर सच्चे शायर टूट गए
ऐसी साज़िश वक़्त रचेगा हमको ये मालूम न था
रफ्ता।रफ्ता इन आँखों के दिलकश मंज़र टूट गए
साथ कभी यूं भी देता है वक़्त ज़िन्दगी में यारो
राहों के पत्थर कितने ही मारी ठोकर टूट गए
और अंत में जा ही पहुँचा अंजुम वहाँ बुलन्दी तक
जाने दो जो इस रस्ते पर पंछी के पर टूट गए