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अब क्या है, जो लिये चलूँ मैं / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
सुध का मीठा भार तुम्हारा
जीवन का था शेष सहारा;
वह भी हार चुका जब तुमको,
क्या लेकर अब जिये चलूँ मैं?
कुश गड़ते ही रहे राह-भर,
पग बढ़ते ही रहे, आह भर;
इब इस तार-तार चादर को
किस आशा से सिये चलूँ मैं?
नयनों की अनजान चपलता
जीवन की बन गई विफलता;
अब अपने इन पाषाणों को
मोती कैसे किये चलूँ मैं?