भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब न फिर दीवानगी के दिन पुराने आएंगे / ध्रुव गुप्त
Kavita Kosh से
अब न फिर दीवानगी के दिन पुराने आएंगे
हम तेरी गलियों में मौसम के बहाने आएंगे
आज भी पुरकश हैं तेरे हुस्न की वीरानियां
हम रहे तो फिर तुम्ही से दिल लगाने आएंगे
कुछ उदासी है अगर आकर हंसा देना हमें
तुम अगर रूठोगे हम तुमको मनाने आएंगे
गर्म कपड़ों की बड़ी ज़द्दोज़हद है आजकल
सर्दियों के बाद हम तुमको बुलाने आएंगे
तुम अंगीठी लेके बैठो अपने खेतों के क़रीब
हम शहर से लौटकर किस्से सुनाने आएंगे
धान की बाली पे गोरी चांदनी रूकना अभी
पौ फटे तो हाले दिल तुमपर जताने आएंगे
हम रहेंगे, तुम रहोगे, अपनी निस्बत भी रहे
वहशतों के अब न वो पिछले ज़माने आएंगे
अपने टूटे ख़्वाब की सोंधी सी ख़ुशबू है वहां
हम उसी मिट्टी में क़िस्मत आज़माने आएंगे