अभी कुछ और ठहर / अमित गोस्वामी
मुझे ये शाम तुझी सी हसीन लगती है
गुज़रती शाम के संदल−से आसमान पे देख
पलट के जाने से पहले सुनहरे सूरज ने
घने दरख़्त पे माथा टिका दिया अपना
मेरे भी काँधे पे तू सर टिका के बैठ ज़रा
कुछ और देर मेरे पास आ के बैठ ज़रा
कुछ और देर, कि सरगोशियों की आवाज़ें
धड़कते दिल की सदा में समाए जाती हैं
मेरे लबों पे दरख़्शाँ है तेरे नाम की लौ
तेरे लबों से लरज़ती सदा ढलकती है
समाअतों में तेरे लफ़्ज़ घुल रहे हैं, ठहर
सुकूत−ए−ज़ीस्त के सब दाग़ धुल रहे हैं, ठहर
ज़रा ठहर, तेरी आँखों में साफ़ लिक्खा है
नशात−ए−वस्ल पे भारी है दर्द रुख़सत का
ग़ुरूब−ए−शाम का मंज़र है और तेरी आँखें
ज़रा ख़ुमार में बहकी हैं, कुछ थकान से चूर
तेरी नज़र है कि गोया, निगाह−ए−साक़ी है
अभी न जा मुझे मदहोश होना बाक़ी है
ज़रा सी देर में ये शाम लौट जाएगी
तुझे भी घर की परेशानियाँ बुला लेंगीं
मुझे भी शहर की गलियों की ख़ाक छाननी है
पर उससे पहले ज़रा देर रुक, तुझे छू लूँ
मैं अपनी नज़रों से हाथों का काम लूँ, रुक जा
मैं तेरे अक्स को आँखों में थाम लूँ, रुक जा