भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अर्ज़-ए-पाक़ पर ये हवादिशें देखा तो रो दिया / कबीर शुक्ला

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अर्ज़-ए-पाक पर ये हवादिशें होता देखा तो रो दिया।
निग़ार-ए-ज़ीस्त को पामाल बनता देखा तो रो दिया।

आग लगे ऐ दुनिया तेरी इस कारगह-ए-ज़रदारी को,
ज़िस्म-ए-नाज़नीं ज़लबत बिकता देखा तो रो दिया।

मैं इन हवस-परस्त लोगों की चीरादस्ती को क्या कहूँ,
दोशीजा को कहवाखाने में चीखता देखा तो रो दिया।

शरम आती है मुझे मर्दों तेरी ये उरिआनियाँ देखकर,
ख़ूने-तमन्ना-ए-दिल किसी का होता देखा तो रो दिया।

वो बेखबर था सरहद पर महाज़-ए-जंग में मशरूफ़,
बहन की इस्मत को ज़लबत लुटता देखा तो रो दिया।

जिसे दुनिया देखना था और उस उफ़क को छूना था,
बुलबुल दार-ओ-रसन पर लटकता देखा तो रो दिया।

वो नटखट-सी गुड़िया जिसे हम शाने-गली कहते थे,
चारदिवारों में उसे धूधू कर जलता देखा तो रो दिया।

किसी से वफ़ा की उम्मीद अब कोई करे भी तो कैसे,
बाग्बाँ को मासूम कलियाँ मसलता देखा तो रो दिया।

पैर होते हुए भी इस सरमाए ने अपाहिज बना रखा है,
गिर गिर कर बारहाँ उसे सम्भलता देखा तो रो दिया।