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अवनति कारण / प्रेमघन

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रह्यो एक घर जब लौं सुख समृद्धि लखाई.
उन्नति ही सब रीति निरन्तर परी लखाई॥557॥

गयो एक सों तीन जबै घर अलग-अलग बन।
ठाट बाट नित बढ़त रह्यो परिपूरित धन जन॥558॥

छूटेव प्रथम निवास पितामह मम कोइत सों।
विवस अनेक प्रकार भार व्यापार अमित सों॥559॥

तऊ लगोई रह्यो सहज सम्बन्ध यहाँ को।
हम सब सों बहु बतसर लौं पूरब वत हो जो॥560॥

आधे दिवस बरस के बीतत याही थल पर।
नित्य नवल आनन्द सहित पन प्रथम अधिक तर॥561॥

क्रम सों छूटत, टूट्यो सब सम्बन्ध यहाँ को।
बीसन बरसन सों न लख्यों अब अहै कहाँ को॥562॥

बचे दोय घर जे तिनकी है अकथ कहानी।
समझत मन मुरझात, जात अधिकात गलानी॥563॥

इक घर नास्यो अमित व्यैयिता अरु ऐय्यासी.
दूजो कलह अदालत को उठ सत्यानासी॥564॥

भए एक के चार-चार घर अलग-अलग जब।
भरे परस्पर कलह द्वेष तब कुशल होत कब॥565॥

गए दीन बनि सबै मिटी या थल की शोभा।
जाहि एक दिन लखत कौन को नहिं मन लोभा॥566॥

तऊ स्वजन वे धन्य अजहुँ जे बसे अहैं इत।
साधारनहुँ दसा मैं सेवत जन्म भूमि नित॥567॥

पूरब उन्नत दशा न इत की दृग जिन देखी।
तासों होत न उन्हें खेद वसि इतै बिसेखी॥568॥

ग्राम नाम अरु चिह्न बनाए अजहुँ यहाँ पर।
करि स्वतन्त्र जीविका रहत सन्तुष्ट सदा घर॥569॥

पूजत भूले भटके, भूखे आगन्तुक जन।
मुष्टि अन्न दै तोषत अजहूँ वे भिक्षुक गन॥570॥

जहाँ आय जन भाँति-भाँति सत्कारहिं पावत।
श्री समृद्धि लखि जहँ की जन मन मोद बढ़ावत॥571॥

बड़े बड़े श्रीमान् महाजन आस पास के.
तालुकदार अनेक आश्रित रूप जुरे जे॥572॥

रहत जहाँ, तहँ आज की लखे दीन दसा यह।
होत जौन मन व्यथा कौन विधि जाय कही वह॥573॥

जाकी शोभा मनभावनि अति रही सदाहीं।
जाहि लखत मन तृप्त होत ही कबहूँ नाहीं॥574॥

आज तहाँ कोऊ विधि सों नहि रमत नेक मन।
हठ बस बसत जनात कल्प के सम बीतत छन॥575॥

आय गई दुर्दसा अवसि या रुचिर गाँव की।
दुखी निवासी सबै, छीन छबि भई ठाँव की॥576॥

जे तजिया कहँ गयेअनत वे अजहुँ सुखी सब।
ईस कृपा उन पर वैसी ही है जैसी तब॥577॥

कारन याको कहा समझ मैं कछू न आवत।
बहु विचार कीनेपर मन यह बात बतावत॥578॥

जब लौं अगले लोग रहे सद्धर्म्य परायन।
न्याय नीति रत साँचे करत प्रजा परिपालन॥579॥

तब लौं सुख समुद्र उमड्यो इत रहत निरन्तर।
उत्तरोत्तर उन्नति की लहरात ही लहर॥580॥

भए स्वार्थी जब सों पिछले जन अधिकारी।
भरे ईर्षा, द्वेष, अनीति निरत, अविचारी॥581॥

करन लगे जब सों अन्याय सहित धन अरजन।
भूमि धर्म्म, करि कलह, स्वजन परजन कहँ पेरन॥582॥

होन तबहिं सो लगी दीन यह दसा भयावनि।
देखे पूरब दसा लोग मन भय उपजावनि॥583॥

पै जब करत विचार दीठ दौराय दूर लौ।
अन्य ठौर प्रख्यात रहे जे इत वेऊ त्यों॥584॥

बिदित बंश के रहे बड़े जन जे बहुतेरे।
श्री समृद्धि अधिकार सहित या देशन हेरे॥585॥

पता चलत उनको नहिं गए विलाय कबैधों।
थोरे ही दिन बीच कुसुम खसि कुसुमाकर लौं॥586॥

राजा तालुकदार जिमीदार हू महाजन।
राजकुमार, सुभट औरो दूजे छत्रीगन॥587॥

कहाँ गए जे गर्वित रहे मानधन जन पैं।
गनत न औरहिं रहे माल अपने भुज बल तैं॥588॥

किते वंश सों हीन छीन अधिकार किते ह्वै।
किते दीन बनि गए भूमि कर औरन के दै॥589॥

जे नछत्र अवली सम अम्बर अवध विराजत।
रहे सरद रजनी साही मैं शुभ छबि छाजत॥590॥

ऊषा अँगरेजी मैं कहुँ-कहुँ कोउ जे दरसैं।
हीन प्रभा ह्वै अतिसय नहिं ते त्यों हिय हरसैं॥591॥

भयो इलाका कोउ को कोरट के अधीन सब।
बंक तसीलत कितौ, महाजन कितौ कोऊ अब॥592॥

कोऊ मनीजर सरकारी रखि काम चलावत।
पाय आप तनखाह कोऊ विधि समय बितावत॥593॥

कैदी के सम रहत सदा आधीन और के.
घूमत लुंडा बने शाह शतरंज तौर के॥594॥

कहुँ कहुँ कोउ जे सबही विधि सम्पन्न दिखाते।
नहिं तेऊ पूरब प्रभाव को लेस लखाते॥595॥

पिता पितामह जैसे उनके परत लखाई.
जैसी उनमें रही बड़ाई अरु मनुसाई॥596॥

सों अब सपनेहुं नहिं लखात कहुंधौ केहि कारण।
पलटी समय संग सब देश दशा साधारण॥597॥

जैसे ऋतु के बदलत लहत जगत औरै रंग।
बदलत दृश्य दिखात रंगथल ज्यों विचित्र ढंग॥598॥

त्यों रजनी अरु दिवस सरिस अद्भुत परिवर्तन।
चहुँ ओरन लखि जात न कछु कहि समुझि परत मन॥599॥

रह्यो जहाँ लगि बच्यो अवध को साही सासन।
रही बीरता झलक अजब दिखरात चहूँकन॥600॥

रहे मान, मर्यादा दर्प, तेज मनुसाई.
इतै आत्मा रच्छा चिन्ता बल करन लराई॥601॥

सहज साज सामान शान शौकत दिखरावन।
बने बड़े जन पास भेद सूचक साधारण॥602॥

शान्त राज अँगरेजी ज्यों-ज्यों फैलत आयो।
सबै पुरानो रंग बदलि औरै ढंग ल्यायो॥603॥

ऊँच नीच सम भए, बीर कादर दोऊ सम।
बड़े भए छोटे, छोटे बढ़ि लागे उभरन॥604॥

लगीं बकरियाँ बाघन सों मसखरी मचावन।
धक्का मारि मतंगहि लागीं खरी खिझावन॥605॥

रही बीरता ऐड़ इतै जो सहज सुहाई.
जेहि एकहिं गुन सों पायो यह देस बड़ाई॥606॥

ताके जात रही नहिं इत शोभा कछु बाकी।
वीर जाति बिन मान बनी मूरति करुना की॥607॥

जिन बीरन कहँ निज ढिग राखन हेतु अनेकन।
नित ललचाने रहत इतै के संभावित जन॥608॥

भाँति भाँति मनुहार सहित सत्कार रहत जे.
आज न पूँछत कोऊ तिन्हैं बिन काज फिरत वे॥609॥

रहे वीर योाा ते आज किसान गए बनि।
लेत उसास उदास सर्प जैसे खोयो मनि॥610॥

रहे चलावत जे तलवार तुपक ऐंड़ाने।
आजु चलावहिं ते कुदारि फरसा विलखाने॥611॥

जे छाँटत अरि मुण्ड समर मह पैठि सिंह सम।
कड़वी बालत बैठि खेत काटत बनि बे दम॥612॥

रहत मान अभिमान भरे सजि अस्त्र शस्त्र जे.
सस्य भार सिर धरे लाज सों दबे जात वे॥613॥

भेद न कछू लखात बिप्र छत्री सूदन महँ।
समहिं बृति, सम वेष समहिं, अधिकार सबन कहँ॥614॥

चारहुँ बरन खेतिहर बने खेत नहिं आँटत।
द्विज गन उपज्यो अन्न अधिक हरवाहन बाँटत॥615॥

करत खुसामद तिनकी पै न लहत हरवाहे।
मिलेहु न मन दै करत काज अब वे चित चाहे॥616॥

करत सबै कृषिकर्म न पै हल जोतत ये सब।
बिना जुताई नीकी अन्न भला उपजत कब॥617॥

सम लगान, ब्यय अधिक, आय कम सदा लहत जे.
दीन हीन ताही सों नित प्रति बने जात ये॥618॥

नहिं इनके तन रुधिर मास नहिं बसन समुज्ज्वल।
नहिं इनकी नारिन तन भूषण हाय आजकल॥619॥

सूखे वे मुख कमल, केश रुखे जिन केरे।
वेश मलीन, छीन तन, छबि हत जात न हेरे॥620॥

दुर्बल, रोगी, नंग धिड़ंगे जिनके शिशु गन।
दीन दृश्य दिखराय हृदय पिघलावत पाहन॥621॥

नहिं कोउ सिर टेढ़ी पाग लखात सुहाई.
बध्यों फांड? नहिं काह को अब परत लखाई॥622॥

नहिं मिरजई कसी धोती दिखरात कोऊ तन।
नहिं ऐड़ानी चाल गर्व गरुवानी चितवन॥623॥

नहिं परतले परी असि चलत कोऊ के खटकत।
कमर कटार तमंचे नहिं बरछी कर चमकत॥624॥

लाठी हूँ नहिं आज लखात लिए कोऊ कर।
बेंत सुटकुनी लै घूमत कोउ बिरले ही नर॥625॥

पढ़ि पढ़ि किते पाठशालन मैं विद्या थोड़ी।
परम परागत उद्यम सों सहसा मुख मोड़ी॥626॥

ढूँढत फिरत नौकरी जो नहिं कोउ विधि पावत।
खेती हू करि सकत न, दुख सों जनम वितावत॥627॥

चलै कुदारी तिहि कर किमि जोकलम चलायो।
उठै बसूला, घन तिन सों किमि जिन पढ़ि पायो॥628॥

अँगरेजी पढ़ि राजनीति यूरप आजादी।
सीखे, हिन्द में बसि, निरख्यो अपनी बरबादी॥629॥

करि भोजन मैं कमी किते अँगरेजी बानों।
बनवत पै नहिं बनत कैसहूँ ढंग विरानो॥630॥

आय स्वल्प, अति खरचीली वह चलन चलै किमि।
टिटुई ऊँटन को बोझा बहि सकत नहीं जिमि॥631॥

खोय धर्म्म धन किते बने नटुआ सम नाचत।
कर्ज लेन के हेतु द्वार द्वारहिं जे जाँचत॥632॥

उद्यम हीन सबै नर घूमत अति अकुलाने।
आधि व्याधि सों व्यथित, छुधित बिलपत बौराने॥633॥

मरता का नहिं करता की सच करत कहावत।
बहु प्रकार अकरम करता विचार न ल्यावत॥634॥

ईस दया तजि और भास जिनको कछु नाहीं।
सोई दया उपजावै अधिकारिन मन माहीं॥635॥

बेगि सुधारैं इनकी दशा सत्य उन्नति करि।
शुद्ध न्याय संग वेई सदा सद्धर्म्म हिये धरि॥636॥

होय देश यह पुनरपि सुख पूरति पूरब वत।
भारत के सब अन्य प्रदेसन पाहिं समुन्नत॥637॥