भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

असीम-ससीम / मुकेश निर्विकार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हो कितना भी आकाश असीमित
और समय अनन्त!
बहुत बड़ी हो
बेशक
यह समूची धरा!
कल्पनातीत विशाल हो
अखिल ब्रह्माण्ड भले ही,
किन्तु/मुझे तो जीना हैं
आकाश के इसी ‘संकुचित टुकड़े’ के नीचे
एक सीमित से भू-भाग पर
अपने निवास और दफ्तर के बीच
घड़ी की टिक-टिक और
दो सुइयों के बीच नापते समय में सिमटकर
दिन-हफ्ते-महीने और सालों के
पैमानों में नापकर
रोटी की परिधी में खटकर.....

आकाश का असीम विस्तार...
समय की अनंतता....
कल्पनातीत ब्रह्माण्ड....

कोई मायने नहीं रखते ये मेरे लिए!
पीढ़ियाँ सुनती रही हैं
बातें
अनन्त विस्तार की
मगर,
कब जी सकी हैं
कभी/उस अनंत विस्तार को भला!
आजीवन
अपनी-अपनी मजबूरियों
और विडम्बनाओं के भँवर में
जन्म और मरण के दो तटबन्धों के बीच/फँसकर/
अफसोस !/ अपनी असीम सत्ता को/कभी
हासिल न कर सकीं/जिंदगी हमारी!